Monday, April 27, 2009

कल फिर आना .

मेरी खिड़की की जाली से एक अधभुत नज़्ज़ारा दीखता है,
एक कबूतर का जोड़ा चौंच लड़ा प्यार करता है।
अधुबुत ये है की एक कबूतर सफ़ेद है और एक काला है,
और सामने वाली छत पर जब मौका मिलता है आ जाता है।
मग्न अपनी चाहत में वह यह भूल जाता है,
की एक सफ़ेद और एक काला दिखलाता है।
काश हम भी उनकी तरह अपने भेदों को भूल पाते,
प्रेम को सुर्वोपरी कर संग खिलखिलाते।
मैं सोचती हूँ ये जहाँ और खुबसूरत बन जाता ,
अगर हर इंसान इन आजाद पंछियों का मकसद समझ पता।
कल सुबह मैंने इन से एक गुजारिश की थी ,
की तुम कल फिर आना अपने प्यार का संदेसा फिर लाना।
और लो ये आज फिर आए हैं अपने प्रेम का संदेसा फिर लाये हैं।
बस अपनी गुटरगूं में इतना समझाते हैं...
हमें देख सिर्फ़ खुश मत होजाना ,
तुम फी प्रेम वाहक बन ये संदेसा सबतक पौहंचाना ,
कल फिर आना ,कल फिर आना।

1 comment:

prjotwani said...

a superbly written poem,rich in content!! shows ur understanding of nature as well as human nature!!
transformed a simple view which we all see day in and out with hardly a casual glance into a deep issue which has plagued mankind since ages!!